मॉ का प्रेम, मॉ क्या होती है?
मॉ पृथ्वी पर भगवान का दूसरी रूप होती मॉ शब्द की व्याख्या तो बडे बडे ज्ञानी भी नहीं कर सके अगर कौसल्या मॉ नहोती तो हमे श्री राम कैसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान न मिलते देवकी मॉ नहोती तो हमे श्री कृष्ण जैसे नटखट बाल गोपाल न मिलते और हमे गीता का जैसा महा ग्रंथ न मिलता
माता मत्स्यगंधा (सत्यवती) न होती तो वेदव्यास जैसे ज्ञानी न होते और १८पुराण न होते ४वेद न होते मॉ न होती तो सुखदेव जैसे परमहंस न होते तो परीक्षित का मोक्ष न होता
अगर मॉ न होती तो सृष्टि न होती। Prem kya hai?
और आज उसी मॉ को दर दर भटकाते उसी मॉ को जीसने अपने बच्चों का पेट भरने के लिए खुद भोजन नही किया शास्त्र कहता है जो मॉ का सम्मान नही करते उसे इस पृथ्वी पर रहने का अधिकार नही है क्यो की पृथ्वी भी मॉ ही है।
जिस प्रकार बच्चा अपनी को गर्भ मे मॉ को लात मारत है तो मा सहन कर लेती है उसी प्रकार हम पृथ्वी पर प्रहार करते हैं
पृथ्वी पर मल मूत्र त्याग करते हैं लेकिन मॉ कभी कुछ नही कहती हम पृथ्वी मॉ पर हल चला कर पृथ्वी का सीना छल्ली करते हैं पर पृथ्वी मॉ हमे अनाज देती हैं क्यो की,
कुपुत्रो जायेता क्वचदपी कुमाता न भवती
सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई? क्या है रहस्य जानने के लिए क्लिक करें
पुत्र कुपुत्र हो सकता हैं लेकिन माता कुमाता कभी नही हो सकती जननी और जन्म भूमि दोनो ही मॉ होती हैंमनुष्य हर प्रकार का ऋण उतार सकता परन्तुमातृ ऋण नहीं उतार सकता।तल आवरण है जो हमारे दुःख, तकलीफ की तपिश को ढँक देती है। उसका होना, हमें जीवन की हर लड़ाई को लड़ने की शक्ति देता रहता है। सच में, शब्दों से परे है माँ की परिभाषा।
माँ शब्द के अर्थ को उपमाओं अथवा शब्दों की सीमा में बाँधना संभव नहीं है। इस शब्द की गहराई, विशालता को परिभाषित करना सरल नहीं है क्योंकि इस शब्द में ही संपूर्ण ब्रह्मांड, सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य समाया है। माँ व्यक्ति के जीवन में उसकी प्रथम गुरु होती है, उसे विभिन्ना रूपों-स्वरूपों में पूजा जाता है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में मातृ ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। भारतीय संस्कृति में जननी एवं जन्मभूमि दोनों को ही माँ का स्थान दिया गया है।
माँ अनंत शक्तियों की धारणी होती है। इसीलिए उसे ईश्वरीय शक्ति का प्रतिरूप मानकर ईश्वर के सदृश्य माना गया है। माँ के समीप रहकर उसकी सेवा करके, उसके शुभवचनों, शुभाशीष से जो आनंद प्राप्त किया जा सकता है वह अवर्णनीय है
मानव अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति जन्मभूमि यानी धरती माँ से, तो जीवनदायी आवश्यकता की पूर्ति जननी से करता है। मनसे लेकर पशु एवं पक्षियों तक को आत्मनिर्भर, स्वावलंबी एवं कुशल बनाने के लिए उनकी माँ उन्हें स्वयं से अलग तो करती है परंतु उनकी सुरक्षा के प्रति हमेशा सचेत रहकर अपने ममत्व को बनाए रखती है। परंतु ठीक इसके विपरीत कई बार मानव स्वयं अपने बढ़ते बुद्धि विकास के कारण अपनी सुरक्षा एवं आवश्यकता के प्रति स्वार्थी होकर माँ और उसकी ममता के प्रति उदासीन हो जाता है। फिर वह अपनी पूर्ति के लिए जननी और जन्मभूमि दोनों का दोहन तो करता है परंतु उनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना भूल जाता है। जो व्यक्ति अपने इन कर्तव्यों का पालन करता है वो स्नेह, ममत्व की छाँव में रहकर सद्गुण, संस्कार, नम्रता को प्राप्त करता है। वह अपने जीवन में समस्त सुखों और जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर ऊँचाइयों को पा लेता है। वहीं ऐसे व्यक्ति जो अपने कर्तव्यों के निर्वहन में मातृशक्ति को, उसके स्नेह, ममत्व को उपेक्षित कर उन्नति का मार्ग ढूँढने का प्रयास करते हैं, वे जीवन भर निराशा के अलावा कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते।
माँ अनंत शक्तियों की धारणी होती है। इसीलिए उसे ईश्वरीय शक्ति का प्रतिरूप मानकर ईश्वर के सदृश्य माना गया है। माँ के समीप रहकर उसकी सेवा करके, उसके शुभवचनों, शुभाशीष से जो आनंद प्राप्त किया जा सकता है वह अवर्णनीय है। अपने दिए स्नेह के सागर के बदले माँ बच्चों से कुछ नहीं चाहती। वह हर हाल में केवल बच्चों का हित सोचती है, खुद को मिटाकर भी। इसलिए अपनी ओर से हम उसे कभी दुःख न दें, यही हमारा कर्तव्य होना चाहिए।
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