सुदामा जी के माता पिता कौन थे?

सुदामा जी एक निर्धन ब्रम्हण थे जिन्होंने अपना जीवन श्री कृष्णा के चरणों मे समर्पित कर दिया था उनके पिता थे शरडधार और माता का नाम सत्यबती था और उनकी पत्नी का नाम सुसीला देवी था
सुदामा जी का घर अस्मावतीपुर (पोरबन्दर) मे था, सुदामा जी के परम् मित्र श्री कृष्ण थे और इनके गुरू जी का नाम संदीपनी मुनी था
श्री कृष्ण ने और सुदामा जी बलराम ने साथ उज्जैन में शिक्षा ग्रहण किये
एक ब्राह्मण, भगवान श्री कृष्ण के परम मित्र थे। वे बड़े ज्ञानी, विषयों से विरक्त, शांतचित्त तथा जितेन्द्रिय थे। वे गृहस्थी होकर भी किसी प्रकार का संग्रह परिग्रह न करके प्रारब्ध के अनुसार जो भी मिल जाता उसी में सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र फटे पुराने थे। उनकी पत्नी के वस्त्र भी वैसे ही थे।
जब भी हम आदर्श मित्रता की बात करते हैं, सुदामा और श्री कृष्ण का प्रेम स्मरण हो आता है।
उनकी पत्नी का नाम सुशीला था। नाम के अनुसार वह शीलवती भी थीं। वह दोनों भिक्षा मांगकर लाते और उसे ही खाते लेकिन यह बहुत दिन तक नहीं चल सका। कुछ वर्षों के बाद सुशीला इतनी कमजोर हो गईं कि चलने फिरने में उनका शरीर कांपने लगता। तब सुशीला का धैर्य थोड़ा कम हुआ और उन्होंने सुदामा जी से प्रार्थना की कि वह अपने बचपन के मित्र श्री कृष्ण के पास जाएँ, वे शरणागतवत्सल हैं। यदि अपनी स्थिति से उनको परिचय कराएगें तो, वह अवश्य ही हमारी मदद करेंगे। ऐसा सुनकर वह अपनी पत्नी से बोले यदि कोई भेंट देने योग्य वस्तु है तो दे दो, तब सुशीला ने पड़ोस के घर से चार मुठ्ठी तन्दुल माँगे और अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर उसमें बांध कर दे दिए।
सुदामा जी चल पड़े, चलते-चलते वह जंगल के रास्ते समुद्र की खाड़ी के पास पहुँचे, भूख-प्यास से व्याकुल होकर वो वहीँ रास्ते में थककर सो गए।
श्री कृष्ण अंतर्यामी तो थे ही, उन्होंने देखा उनका प्रेमी भक्त सुदामा उनसे मिलने आ रहा है। वो नहीं चाहते थे कि सुदामा को किसी प्रकार का कष्ट हो इसलिए उन्होंने योगमाया से जैसा कहा उन्होंने वैसा ही किया, जब प्रातःकाल सुदामा जी ने अपनी आँखें खोलीं तो देखा कि द्वारकाधीश भगवान की जय जयकार हो रही थी।
सुदामा जी कुछ समझ ना पाए और अपने पास में खड़े व्यक्ति को अपना परिचय देते हुए कहा- मैं श्री कृष्ण का मित्र हूँ और उनसे मिलना चाहता हूँ। उस व्यक्ति ने कहा, “वो सामने महल है जहाँ द्वारपाल खड़े हैं, वहाँ चले जाओ। द्वारपालों को सुदामा की फटेहाल आवस्था देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने सुदामा जी के आने का सन्देश श्री कृष्ण को दिया।
श्री कृष्ण ने जैसे ही द्वारपालों के मुख से सुना सुदामा आया है, वे पलंग से कूद पड़े, दौड़ पड़े और सातों दरवाजो को पार करते हुए बाहर आ गए। उन्हें देखकर भगवान श्री कृष्ण के आंसू बहने लगे और उन्होंने सुदामा को अपने ह्र्दय से लगा लिया। द्वारपालों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। सुदामा भी अपने बचपन के सखा को देखकर आनंदित हुए, उनके नेत्रों से भी अश्रुधारा बहने लगी।
श्री कृष्ण सुदामा का हाथ पकड़कर अन्दर ले आये और उन्हें अपने पलंग पर बैठा दिया, स्वयं नीचे बैठ गए और सुदामा जी के चरण अपनी गोद में रखे। भगवान श्री कृष्ण ने रुकमणि जी से थाल और जल मंगवाया। वह जितनी देर में जल ला ही रही थीं, श्री कृष्ण ने अपने आँसुओं से ही उनका चरण प्रक्षालन कर दिया। भगवान ने सुदामा जी का पाँव देखा तो उसमें कांटा चुभा हुआ था। भगवान ने बिना किसी देरी के झट अपने मुख से ही कांटे को निकल दिया।
आत्मा क्या है परमात्मा क्या है
सुदामा जी का चरण प्रक्षालन किया, पूजन किया उसके बाद अपनी सभी रानियों को इशारा किया –‘प्रणाम करो! आर्शीवाद लो! ये सिद्ध महापुरुष हैं। रुक्मणि जी, सत्यभामा, जामवंती आदि सभी देवियों ने प्रणाम किया और आर्शीवाद लिया।
श्री कृष्ण ने सुदामा जी से पूछा– मित्र! आपने विवाह किया है कि नहीं?
सुदामा जी ने कहा– मैंने किया तो है लेकिन एक ही किया है।
श्री कृष्ण बोले– अच्छा, विवाह किया है तो भाभी जी ने कुछ मेरे खाने-पीने को तो भेजा होगा।
अब, सुदामा जी को संकोच लगने लगा। उनको लग रहा था, इतने बड़े-बड़े रत्नजटित महल हैं और ये मैं चार मुट्ठी तन्दुल निकाल कर दूंगा, इनकी सभी पत्नियाँ यहाँ खड़ी हैं, वो क्या सोचेंगी? ऐसा सोचकर सुदामा जी ने सिर नीचे कर लिया और लज्जावश चार मुट्ठी तन्दुल लक्ष्मीपति भगवान श्री कृष्ण को नहीं दे पाये।भगवान श्री कृष्ण समस्त प्राणियों के ह्रदय का एक-एक संकल्प जानते हैं।उन्होंने सुदामा के आने का कारण एवं उनके ह्रदय की बात जान ली। अब वे विचार करने लगे कि यह मेरा प्रिय सखा है और दूसरा इसने लक्ष्मी की चाहना से मेरा भजन कीर्तन नहीं किया।
अब मैं इसे ऐसी सम्पति दूंगा जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, ऐसा सोचकर भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा के बगल में छिपाई हुई पोटली छीन ली।
उसमें से एक मुट्ठी तन्दुल खाया और सुदामा को एक लोक की सम्पति दे दी। दूसरी मुट्ठी खाया और दूसरे लोक की सम्पति दे दी। तीसरी मुट्ठी तन्दुल खाकर बैकुंठ की भी सम्पति देने को तैयार थे, रुक्मणि जी घबरा गयीं और बड़ी बुद्धिमता से मना करते हुए कहने लगीं, क्या हमको इतने बड़े महात्मा के घर का प्रसाद नहीं मिलेगा? क्या सारा आप ही ले लेंगे?
भगवान ने दो मुट्ठी तन्दुल खाकर बाकी सभी रानियों को बाँट दिया ।
भगवान ने सुदामा के लिए छप्पन भोग बनवाए, भोजन कराया। सुदामा जी बड़े आराम से महल में सो गए मानो बैकुंठ में पहुँच गये हों।
सुदामा जी प्रातःकाल नित्यकर्म व बालभोग करके निर्वृत हुए। एक तरफ कृष्ण जी उत्साहित होकर सोच रहे थे कि सुदामा जल्दी ही सुदामापुरी पहुंचे और देखे कि कैसे सुदामापुरी द्वारिकापुरी में बदल चुकी है।
दूसरी तरफ सुदामा जी सोच रहे थे- लगता है श्री कृष्ण को पता लग गया है, मैं सम्पति के लिए आया था लेकिन वो जानते हैं की सम्पति मिलने के बाद भजन में व्यवधान पड़ेगा, इसलिए उन्होंने सम्पति नहीं दी, वे कितने दयालु हैं।
इस प्रकार सुदामा विचार करते-करते अपने घर पहुँच गये और सोचने लगे कि सुशीला कहाँ चली गयी?
इतनी ही देर में सुशीला सोने के थाल में आरती सजा कर सैकड़ों सेविकाओं के साथ सुदामा जी के सामने आकर खड़ी हो गई। ये देखकर सुदामा जी की आँखों से आंसू बहने लगे और वह सोचने लगे- “धन्य हैं प्रभु जो छिपकर देते हैं, बताते भी नहीं कि मैंने दिया है”। भगवान श्री कृष्ण की उदारता और प्रेम देखकर सुशीला और सुदामा ने निश्चय किया कि वे त्यागपूर्वक निरासक्त भाव से महल में रहते हुए भगवान की भक्ति करेंगे। इस प्रकार भक्ति करते हुए दोनों भगवान श्री कृष्ण के धाम को प्राप्त हो जाते हैं।
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