ब्रह्म क्या है? कोन है?
ब्रह्म एक सून्य के समान है जो अपने आप मे पूर्ण है जिस प्रकार किसी अंक के पीछे सून्य लग जाने से उस अंक कि किमत बढ जाजी है उसी प्रकार ब्रह्म है |
ब्रम्ह कि जरूरत सब को है परंतू ब्रह्म को किसी जरूरत नही है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सून्य कि जरूरत अंको को है
mahavishnu
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aatma kya hai?आत्मा क्या है? |
सून्य को किसी कि जरूरत नही है |
परब्रह्म एक सून्य के समान है ब्रह्म हर जगह है इशा वाशं जगत सर्वं इश्वर का वाश सारे जगत मे है हर प्राणी मे इश्वर है
वही इश्वर जो जगत मे हमे रहने कि भोजन कि व्यवस्था देते हैं
srashthi ki utpatti सृष्टि कि उत्पत्ति कैसे हुई?
srashthi ki utpatti सृष्टि कि उत्पत्ति कैसे हुई?
परमात्मा का उपकार हमे पुन्य करके चुकान चाहिए लेकिन हम पुण्य करने कि जगह पाप कि पाप कर रहे हैं
माया माया सब भजे माधव भजे ना कोई|
जो एक बार माधव भजे माया चेली होये ||
तो पैसा पैसा तो सब बोलते हैं पर भगबान का नाम कोई नहीं लेता है लेकिन एक बार सच्चे मन से भगबान का नाम लेलिया ना तो माया भी पीछे पीछे घूमेगी | प्रेम क्या है?|Prem kya had?
हमे दिन भर में दस मिनट तो भगवान का नाम लेना चाहिए इस काम से भगबान तो प्रशन्न होते ही है और मन भी शांत रहता है
सृष्टि के बीजरूप परमात्मा श्रीकृष्ण
ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत–जो प्राकृतिक सृष्टि है, वह सब नश्वर है। तीनों लोकों के ऊपर जो गोलोकधाम है, वह नित्य है। गोलोक में अन्दर अत्यन्त मनोहर ज्योति है। वह ज्योति ही परात्पर ब्रह्म है। वे परमब्रह्म अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण साकार और निराकार दोनों रूपों में अवस्थित रहते हैं। उस तेजरूप निराकार परमब्रह्म का योगीजन सदा ध्यान करते हैं। उनका कहना है कि परमात्मा अदृश्य होकर भी सबका द्रष्टा है। किन्तु वैष्णवजन कहते हैं कि तेजस्वी सत्ता के बिना वह तेज किसका है। अत: उस तेजमण्डल के मध्य में अवश्य ही परमब्रह्म विराजते हैं। वे स्वेच्छामयरूपधारी तथा समस्त कारणों के कारण हैं। वे परमात्मा श्रीकृष्ण अत्यन्त कमनीय, नवकिशोर, गोपवेषधारी, नवीन मेघ की-सी कान्ति वाले, कमललोचन, मयूरमुकुटी, वनमाली, द्विभुज, एक हाथ में मुरली लिए, अग्निविशुद्ध पीताम्बरधारी और रत्नाभूषणों से अलंकृत हैं। ब्रह्माजी की आयु जिनके एक निमेष की तुलना में है, उन परिपूर्णतम ब्रह्म को ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता है। ‘कृष्ण’ शब्द का अर्थ है श्रीकृष्ण ही सर्वप्रपंच के स्त्रष्टा तथा सृष्टि के एकमात्र बीजस्वरूप हैं।
परमात्मा श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा, धर्म, सरस्वती आदि देवी-देवताओं का प्रादुर्भाव
प्रलयकाल में भगवान श्रीकृष्ण ने दिशाओं, आकाश के साथ सम्पूर्ण जगत को शून्यमय देखा। न कहीं जल, न वायु, न ही कोई जीव-जन्तु, न वृक्ष, न पर्वत, न समुद्र, बस घोर अन्धकार ही अन्धकार। सारा आकाश वायु से रहित और घोर अंधकार से भरा विकृताकार दिखाई दे रहा था। वे भगवान श्रीकृष्ण अकेले थे। तब उन स्वेच्छामय प्रभु में सृष्टि की इच्छा हुई और उन्होंने स्वेच्छा से ही सृष्टिरचना आरम्भ की। सबसे पहले परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणभाग से जगत के कारण रूप तीन गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महतत्त्व, अंहकार, पांच तन्मात्राएं, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द प्रकट हुए। इसके बाद श्रीकृष्ण से साक्षात् भगवान नारायण का प्रदुर्भाव हुआ जो शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज, वनमाला से विभूषित व पीताम्बरधारी थे। उन्होंने परमब्रह्म श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा–जो श्रेष्ठ, सत्पुरुषों द्वारा पूज्य, वर देने वाले, वर की प्राप्ति के कारण हैं, जो कारणों के भी कारण, कर्मस्वरूप और उस कर्म के भी कारण हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूं।
नर्क क्या है जानने के लिए क्लिक करें
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इसके बाद परम पुरुष श्रीकृष्ण के वामभाग से स्फटिक के समान अंगकान्ति वाले, पंचमुखी, त्रिनेत्रवाले, जटाजूटधारी, हाथों में त्रिशूल व जपमाला लिए व बाघम्बर पहने भगवान शिव प्रकट हुए। उनका शरीर भस्म से भूषित था और उन्होंने मस्तक पर चन्द्रमा को धारण कर रखा था। सर्पों के उन्होंने आभूषण पहन रखे थे। उन्होनें श्रीकृष्ण को प्रणाम करते हुए कहा–’जो विश्व के ईश्वरों के भी ईश्वर, विश्व के कारणों के भी कारण हैं, जो तेजस्वरूप, तेज के दाता और समस्त तेजस्वियों में श्रेष्ठ हैं, उन भगवान गोविन्द की मैं वन्दना करता हूँ।’
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के नाभिकमल से ब्रह्माजी प्रकट हुए। उनके श्वेत वस्त्र व केश थे, कमण्डलुधारी, चार मुख वाले, वेदों को धारण व प्रकट करने वाले हैं। वे ही स्त्रष्टा व विधाता हैं। उन्होंने चारों मुखों से भगवान की स्तुति करते हुए कहा–जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोपवेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूं।
इसके बाद परमात्मा श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल से श्वेत वर्ण के जटाधारी ‘धर्म’ प्रकट हुए। वह सबके साक्षी व सबके समस्त कर्मों के दृष्टा थे। उन्होंने भगवान की स्तुति करते हुए कहा–जो सबको अपनी ओर आकृष्ट करने वाले सच्चिदानन्दस्वरूप हैं, इसलिए ‘कृष्ण’ कहलाते हैं, सर्वव्यापी होने के कारण जिन्हें विष्णु कहते हैं, सबके भीतर निवास करने से जिनका नाम ‘वासुदेव’ है, जो ‘परमात्मा’ एवं ‘ईश्वर’ हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। फिर धर्म के ही वामभाग से ‘मूर्ति’ नामक कन्या प्रकट हुई।
तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण के मुख से शुक्लवर्णा, वीणा-पुस्तकधारिणी
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